समय के प्रवाह में धर्म में अनेक नई दृष्टि शामिल हो रही है, विचार की नई कोशिशों में जहां परिष्कृत समाधान दिए हैं

धर्म का सच हमारी समस्याएं और समय l

वैज्ञानिक ज्ञान और नैतिक सोच में हो रहे गहनतम बदलावों ने धर्म की मूल अवधारणाओं और इसकी आवश्यकता पर पुनर्विचार करने के लिए दुनिया भर के धर्म चिंतकों को प्रेरित किया है : योगिराज रमेश जी 

धर्म की अनेक समस्याएं सभ्यता में हो रहे परिवर्तन और विस्तार के साथ निरंतर और जटिल होती जा रही हैं विचारों और अनुभवों से सीखता हुआ मानव इसे प्रतिफल समझने में लगा है लेकिन समस्याएं हैं कि कम होने का नाम नहीं ले रही हैं समय के प्रवाह में धर्म में अनेक नई दृष्टि शामिल हो रही है वैज्ञानिक ज्ञान और नैतिक सोच में हो रहे गहनतम बदलावों ने धर्म की मूल अवधारणाओं और इसकी आवश्यकता पर पुनर्विचार करने के लिए दुनिया भर के धर्म चिंतकों को प्रेरित किया है विचार की नई कोशिशों में जहां परिष्कृत समाधान दिए हैं वही अनेक ऐसी परिस्थितियां भी उत्पन्न की हैं जो आज तक मानव समाज के लिए घातक सिद्ध हो रही हैं ,जबकि धर्म का मूलभूत सिद्धांत ही यही है कि इसके द्वारा मानव मात्र का हित  उन्नति और उपलब्धि का मार्ग निरंतर प्रशस्त होता रहे मेरा अपना मानना यह है कि धर्म के अध्ययन के द्वारा इसके यथोचित हित साधक परिवर्तन को सर्वाधिक महत्व दिया जाना चाहिए कलयुग  के पैर मानव मात्र की भौतिक उपलब्धियों में जमे हुए हैं उपलब्धियों के आयाम और परिभाषाओं में क्षणक्षण इतने बदलाव हो रहे हैं कि इतनी अनिश्चितताओं के कारण इस पर भरोसा करना कठिन हो गया है संपूर्ण मानव जीवन की सभी छोटी बड़ी गतिविधियों में धर्म शामिल है हजारों वर्षों से मानव  मन का अपरिहार्य अंग रहा है सभ्यता के सही-गलत विकास के साथ धर्म के प्रति मानव की आग्रह क्षमता भी बढ़ती गई है भौतिक जगत आज इतना भयभीत करने वाला है कि आदमी की डगमगाती अवस्थाओं को अनेक नए देवी-देवताओं बाबा महंत मठाधीशों की आवश्यकता पड़ गई है आदमी को कोई एक आस्था कोई एक विश्वास आज भवसागर से पार ले जाने में सक्षम नहीं जान पड़ता मंदिरों और धर्म प्रतिष्ठानों को भक्तों की मांग के अनुसार ग्राहक दुकानदार की तरह से पूर्ति करनी पड़ रही है साधु संत महात्माओं को इसी व्यवसायिक कसौटी पर देखकर छोटा बड़ा बताने बनाने की होड़ लगी हुई है शंकराचार्यों को अपनी असलियत साबित करने के लिए माननीय उच्च न्यायालय की शरण में जाना पड़ रहा है एक वह समय था जब की धर्म सभा (संसद )का निर्णय सर्वमान्य हुआ करता था किंतु आज मान-सम्मान की लड़ाई में धर्मसभा (संसद )के अधिष्ठाता शंकराचार्यों की प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी हुई है 
एक समय था जब धर्म से प्रेरणा लेकर राजनीति का संचालन होता था धार्मिक संविधान राजनीति को गरिमामयमअनुशासन में  आबद्धकरता था धर्म को समाज की नींव माना जाता था राजनीति को जब-जब मार्गदर्शन की आवश्यकता होती थी तब वह धर्म की शरण में जाती थी आज धर्म को राजनीति की शरण लेनी पड़ रही है धर्म की दिशा आज राजनीति के द्वारा तय की जा रही है साधु संतों और महात्माओं का मन आज काम क्रोध लोभ और माया के वशीभूत होकर संसार की काली कोठरी में कुछ ज्यादा ही रहने लगा है राजनीति और धर्म ने आज एक दूसरे को बेलगाम कर दिया है इन परिस्थितियों में एक सार्थक धर्म की सुरक्षा और धर्म को समाज के लिए हितकारी बनाए रखना केवल भारतीय धर्म के संदर्भ में ही नहीं वरन पूरी दुनिया के लिए बड़ी चुनौती बन गया है आज धर्मनिरपेक्षता का ढिंढोरा पीटा जा रहा है सरकारें धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करती हैं धर्मनिरपेक्षता की मूल भावना तो यह थी कि जहां विभिन्न धर्मों के मानने वाले निवास करते हो वहां राजनीति इस प्रकार से कार्य करें की किसी एक धर्म की मान्यताओं का पक्ष लेकर बाकी लोगों की जीवनशैली आस्थाओं और मूलभूत मानवीय हितों पर कुठाराघात ना हो पक्षपात न हो परंतु राजनीतिज्ञों ने धर्मनिरपेक्षता की जो परिभाषा गढ़ी है उसमें धर्म की बलि दिए बिना धर्मनिरपेक्षता संभव ही नहीं है धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म मार्ग से हटने की घोषणा हो गया आज देख लीजिए संसार में धर्मनिरपेक्ष सरकारें ही सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार है इनके मंत्री से लेकर संत्री तक सभी भ्रष्ट हैं स्वयं राजा ही चरित्रहीन है इन सरकारों पर धर्म का कोई अंकुश नहीं है राजा आत्म केंद्रित है जो सरकार धर्म के आश्रित नहीं होगी उसका राजा कभी देश और अपनी प्रजा के प्रति कभी प्रतिबद्ध हो ही नहीं सकता यदि ऐसे राजा के मंत्री गैर जिम्मेदार और चरित्रहीन हो तो इसमें आश्चर्य कैसा धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा से कभी भी सामाजिक समस्याओं का निराकरण नहीं हो सकता केवल सार्थक धर्म से ही एक मानव हितैषी राज्य की कल्पना साकार हो सकती है राजनीति का व्यवहारी क्षेत्र धर्म है राजनीति की मर्यादा को धर्म सुनिश्चित करता है धर्म ही राजनीति का संविधान है खतरा तभी उत्पन्न होता है जब धर्म अपनी मर्यादा से भटकने लगता है आज यही हो रहा है राजनीति के अनुचित हस्तक्षेप ने धर्म के क्षेत्र के मजबूत दुर्ग मेंसेध लगा दी है पिछले दो दशकों में धर्म का बहुत तेजी से अमूल्यन हुआ है अब यह क्षेत्र शक्ति प्रदर्शन का अखाड़ा बन गया है अंधभक्ति और अंधविश्वास आज अज्ञानियों में नहीं बल्कि तथाकथित ज्ञानियों के बीच फल फूल रहा है धर्म को अपनी सुविधा के अनुसार तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है सबसे दुखद यहहै कि स्वयं संत समाज ही इस दशा दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है धर्म की हानि के कारण सारे सुखों के होने के बावजूद आज दुनिया जानलेवा तनाव के बीच गुजर रही है सुख भी दुख में बदल रहे हैं यह 
 शताब्दी आज पागलपन के दौर में है कितने युद्ध हो रहे हैं वह भी धर्म के नाम पर और मशीनीकरण ने आत्मा के अस्तित्व को मिटादिया है मनुष्य का अंतर्मन कभी इतना बीमार नहीं था धर्म को हम किसी भी परिस्थिति में समाज के हाशिए पर नहीं डाल सकते धर्म सामाजिक हित का ऐसा क्रियाकलाप है जो विज्ञान जैसा ही सत्य है इसका संबंध विधि और न्याय से भी बहुत गहरा है समस्त ज्ञान का मूल स्रोत धर्म ही है इसलिए मानव सभ्यता को बचाने के लिए धर्म को बचाना अनिवार्य है यह मेरा विनम्र कथन है ।
जगद्गुरु आगमाचार्य श्रीपीठम  पीठाधीश्वर तांत्रिक योगी रमेश जी महाराज प्रयागराज।

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