मंतर पाठ


श्रीस्कन्द पुराण साभार:

 (भगवान् शिव का नर्मदेश्वर शिवलिंग रूप होना तथा गालव-शूद्र-संवाद का उपसंहार)

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती ! द्विजों के लिये ॐकार सहित द्वादशाक्षर मन्त्र का विधान है तथा स्त्रियों और शुद्रों के लिये ॐकार रहित नमस्कार पूर्वक (नमो भगवते वासुदेवाय) द्वादशाक्षर मन्त्र का जप बताया गया है?। संकर जातियों के लिये राम नाम का षडक्षर मन्त्र (ॐ रामाय नमः) है। वह भी प्रणव से रहित ही होना चाहिये, ऐसा पुराणों और स्मृतियों का निर्णय है यही क्रम सब वर्णों के लिये है और संकर जातियों के लिये भी सदा ऐसा ही क्रम है। पार्वती! प्रणव जप में तुम्हारा अधिकार नहीं है। अत: तुम्हें सदा 'नमो भगवते वासुदेवाय' इसी मन्त्र का जप करना चाहिये। यह प्रणव सब देवताओं का आदि कहा गया है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव सभी अपनी प्रिय पत्नियों के साथ प्रणव में निवास करते हैं। सब प्राणी और समस्त तीर्थ उसमें विभाग पूर्वक स्थित हैं। प्रणव सर्वतीर्थमय तथा कैवल्य ब्रह्ममय है। शुभानने ! जब तुम चातुर्मास्य में भंगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये तप करोगी, तब प्रणव सहित द्वादशाक्षर के जप करने के योग्य होओगी। जब तपस्या की वृद्धि होती है, तब भगवान् विष्णु में भक्ति होती है। प्रतिदिन भगवान् विष्णु का स्मरण करना चाहिये। इससे जिह्वा पवित्र होती है। जैसे दीपक प्रज्वलित होने पर बड़े भारी अन्धकार का नाश हो जाता है, उसी प्रकार भगवान् विष्णु की कथा सुनने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं। अत: पार्वती ! तुम भगवान् विष्णु के शयनकाल में द्वादशाक्षर मन्त्रराज का विशुद्धचित्त होकर जप करो। वे ही भगवान् सन्तुष्ट होकर तुम्हें द्वादशाक्षर सहित अखण्ड ब्रह्मस्वरूप का उत्तम ज्ञान प्रदान करेंगे। तुम ब्रह्माजी के कोटि कल्पों तक द्वादशाक्षर मन्त्र का जप करती रहो। जो प्रणव सहित मन्त्रराज का ध्यान करता है, उसका कभी नाश नहीं होता।
         
महादेवजी के ऐसा कहने पर पार्वती जी चौमासा आने पर हिमालय के शिखर पर तपस्या करने के लिये गयीं। वे तीन वस्त्रों से युक्त हो ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करती हुई प्रात:, मध्याह्न और सांय तीनों समय भगवान् के हरिहर स्वरूप का ध्यान करने लगीं। उनके साथ उनकी सखियाँ भी थीं। विशाल नेत्रों वाली पार्वती ने अपने पिता हिमालय के मनोहर शिखर पर क्षमा आदि गुणों से सुशोभित हो तपस्या की।
         
पार्वतीजी के तपस्या में संलग्न होने पर भगवान् शंकर सब ओर पृथ्वी पर विचरण करने लगे। एक दिन उन्होंने जल की उत्ताल तरंग-मालाओं से सुशोभित यमुनाजी को देखकर उसमें स्नान करने का विचार किया। वे ज्यों ही जल में घुसे कि उनके शरीर की अग्नि के तेज से वह जल काला हो गया। यमुना भी दिव्यरूप धारण करके अपने श्याम स्वरूप से प्रकट हुईं और भगवान् शंकर की स्तुति एवं नमस्कार करके बोलीं-'देवेश्वर ! मुझ पर प्रसन्न होइये, मैं आपके अधीन हूँ।
         
महादेवजी ने कहा-जो मनुष्य इस पुण्य तीर्थ में स्नान करेगा, उसके सहस्रों पाप क्षण भर में नष्ट हो जायँगे। यह पवित्र तीर्थ संसार में 'हरतीर्थ' के नाम से विख्यात होगा ऐसा कहकर भगवान् शिव यमुना को प्रणाम करके अन्तर्धान हो गये। उन्होंने यमुना के किनारे मनोहर रूप धारण करके हाथ में वाद्य ले लिया और ललाट में त्रिपुण्ड् धारण करके शिखर पर जटा बढ़ाये मुनियों के घरों में स्वेच्छानुसार घूम-घूमकर अंगों की चपल चेष्टा का प्रदर्शन प्रारम्भ किया वे कहीं गीत गाते और कहीं अपनी मौज से नाचने लगते थे। स्त्रियों के बीच में जाकर कभी क्रोध करते और कभी हँसने लगते थे। इस प्रकार उन्हें सब ओर घूमते देखकर मुनि लोगों ने क्रोध किया और यह शाप दिया कि 'तुम लिंग रूप हो जाओ।' शाप होने पर भगवान् शिव अन्यत्र बहुत दूर चले गये। उनका वह लिंग रूप अमरकण्टक पर्वत के रूप में अभिव्यक्त हुआ और वहाँ से नर्मदा नामक नदी प्रकट हुई। नर्मदा में नहाकर, उसका जल पीकर तथा उसके जल से पितरों का तर्पण करके मनुष्य इस पृथ्वी पर दुर्लभ कामनाओं को भी प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य नर्मदा में स्थित शिवलिंगों का पूजन करेंगे, वे शिव स्वरूप हो जायँगे। विशेषतः चातुर्मास्य में शिवलिंग की पूजा महान् फल देने वाली है। चातुर्मास्य में रुद्रमन्त्र का जप, शिव की पूजा और शिव में अनुराग विशेष फलद है। जो पंचामृत से भगवान् शिव को स्नान कराते हैं, उन्हें गर्भ की वेदना नहीं सहन करनी पड़ती। जो शिवलिंग के मस्तक पर मधु से अभिषेक करेंगे, उनके सहस्रों दुःख तत्काल नष्ट हो जायँगे। जो चातुर्मास्य में शिवजी के आगे दीपदान करते हैं, वे शिवलोक के भागी होते हैं। जो जलधारा से युक्त नर्मदेश्वर महालिंग का चातुर्मास्य में विधि पूर्वक पूजन करता है, वह शिव स्वरूप हो जाता है।
         
 यह सब श्रीविष्णु के शालग्राम होने की और महेश्वर शिव के लिंगरूप होने की कथा सुनायी गयी। अत: जो लिंगरूपी शिव और शालग्रामगत श्रीविष्णु का भक्ति पूर्वक पूजन करते हैं, उन्हें दुःखमयी यातना नहीं भोगनी पड़ती। चौमासे में शिव और विष्णु का विशेष रूप से पूजन करना चाहिये। दोनों में भेद भाव न रखते हुए यदि उनकी पूजा की जाय तो वे स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करने वाले होते हैं। जो भक्तिपूर्वक हरि और हर की पूजा करते हैं, उन्हें भगवान् श्रीहरि मोक्ष प्रदान करते हैं। विवेक आदि गुणों से युक्त शूद्र उत्तम गति को प्राप्त होता है। हे महाशृद्र! तुम्हें बिना मन्त्र के भगवान् विष्णु और गिरिजापति महादेवजी का षोडशोपचार से पूजन करना चाहिये। उनकी पूजा बड़े-बड़े पापों का नाश करनेवाली है।
         
कहा जाता है कि जो मनुष्य इस प्रसंग को सुनता और पढ़कर दूसरों को भी सुनाता है, उसके पुण्य का कभी अन्त नहीं होता।
                     हर हर महादेव!


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